Prince Singhal

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एक साथ

एक साथ 
लेखक: प्रिंस सिंहल

ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी थी । मैं दौड़कर अंतिम कंपार्टमेंट में चढ गया। सामने वाली बर्थ पर केवल एक लड़की बैठी थी । गुलाबी सूट में खिड़की की चौखट पर कोहनी रखे मुंह को हथेली पर टेके हुए खिड़की से बाहर देख रही थी । ठंडी हवा के तेज झोंके उसके रेशमी काले बालों को पीछे की ओर उड़ा रहे थे । वह अपनी धुन में खोई हुई थी ।
क्या मैं यहां बैठ सकता हूं ?
अपने पास यह स्वर सुनकर वह चौंकी, चेहरा हथेली पर से हटा कर उसने मेरी ओर देखा और फिर कुछ हडबड़ा कर रह गई । मैंने एक बार फिर पूछा, क्या मैं यहां बैठ सकता हूं ? जवाब में वह मुझे खाली-खाली नेत्रों से देखने के अलावा कुछ ना बोल सकी । मैं थोड़ा सा फासला रखते हुए उसके बराबर में बर्थ पर बैठ गया । वह कोने में सिमट गई । उसने फिर डरी सहमी निगाहों से मुझे देखा ।
लगता है आप कुछ घबराई हुई है ? 
वह बिना कुछ बोले ही बाहर की ओर देखने लगी । अपने बराबर में बैठे किसी अनजान मर्द की अनुभूति उसके अंदर ढेरों खौफ पैदा कर रही थी ।
उसी समय, टिकट प्लीज ।
उसके बराबर में कोई बोला तो उसने दोबारा चौककर उधर देखा । अबकी बार अपने सामने खड़े टी.टी को देखकर उसके हाथ-पांव फूल गए । शायद उसके पास टिकट नहीं था और पैसे भी, सो अब वह क्या करें ? टीटी से क्या कहे ? उसने घबराहट के मारे इधर-उधर देखा ।
टिकट दिखाइए ।
इस बार टीटी शायद उसकी मनोदशा को भांप गया था । तभी तो कड़कती आवाज में बोला । वह अंदर तक हिल गई । टीटी जब तक मेरी टिकट चैक कर चुका था । मैं उसकी मदद करने का मन बना चुका था और टीटी को पैसे देकर उसकी टिकट बनवा ली । टीटी अपना काम करके चला गया ।
उसने मेरी तरफ अर्थपूर्ण निगाहों से देखा । मुझे लगा वह मेरा धन्यवाद करना चाहेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया । बोला कुछ नहीं फिर गहरी सांस लेकर जेब से सिगरेट की डिब्बी और लाइटर निकालकर सिगरेट सुलगाई और गहरी कश लेकर धुआं छोड़ दिया । उसने धुएं की स्मैल से नाक सिकोड़ी और अपने मुंह के पास आता धुआं हटाया ।
ऑह, साॅरी !
शायद आपको धुआं अच्छा नहीं लगता ।
मैंने शालीनता से कहकर सिगरेट बाहर की ओर उछाल दिया और आंखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगा । वह भी खिड़की से बाहर देखती हुई जाने कौन सी दुनिया में पहुंचती चली गई । तभी एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी, मुझे यही उतरना था । मैं अपनी दीदी के यहां भैयादूज का तिलक लगवाने आया था । यह रायपुर था । तभी उसकी भी निंद्रा भंग हुई और वह ट्रेन से उतर गई । मैंने उससे स्टेशन पर बात करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह भीड़ में न जाने कहां खो गई । मैं अपनी दीदी के यहां पहुंच गया । वर्षों से लिफाफे में बंद डाक द्वारा रोली चावल भेजने वाली बहन को भाईदूज वाले दिन साक्षात् भाई के दर्शन हो गए । दीदी की खुशी का ठिकाना नहीं था । पांच साल का रिशु मामा-मामा कहकर गले से लिपट गया । 
शाम का समय था । मैं और रिशु टेरेस पर बैठे थे, कि मेरी नजर साथ वाली कोठी के बगीचे में मौजूद एक हसीन चेहरे पर पड़ी । यह ट्रेन वाली लड़की ही थी । आसमानी रंग के सूट में उसका चेहरा देख कर ऐसा लग रहा था, मानो निर्मल आकाश पर सफेद बादल का गोला ठहर गया हो । उसकी आंखों में किसी का इंतजार तो था, लेकिन वह मेरी ओर से बेखबर थी । कुछ समय पश्चात हम नीचे उतर गए । कुछ जानकारी हासिल करने को मैंने बातों-बातों में दीदी से पूछा भी क्या उनका वहां मन लग रहा है ? आस-पड़ोस कैसा है ? साथ वाली कोठी में कौन रहता है ? दीदी ने कोई रुचि ना लेते हुए सपाट सा उत्तर दिया, की आस पड़ोस के बारे में जानने की फुर्सत ही नहीं मिलती है । साथ वाली कोठी में दो औरत ही नजर आती है । कभी कोई आदमी तो देखा नहीं । औरतों से कभी मिलना भी नहीं हुआ । कभी टेरेस पर कपड़े सुखाते वक्त सामना हुआ भी तो बातचीत नहीं हुई । लेकिन यह सब जानकारी मेरे किसी काम की नहीं थी । 
मुझे वहां आए 2 दिन हो गए थे । मेरा वहां से आने का मन तो नहीं था, लेकिन रुकता भी तो किसके लिये । मेरे वहां से लौटते समय दीदी का मन भर आया । रिशु भी उदास हो गया इसलिए मैंने राखी पर आने का वादा कर दिया । सुनते ही दीदी का चेहरा खिल उठा लेकिन जीजाजी हंसते हुए बोले, साले साहब ! कभी भाई दूज, कभी राखी, हमेशा अपनी दीदी के लिए ही आओगे । कभी हमारे लिए भी आओ ! मैं मुस्कुराने लगा । तभी वह बोले, ऐसा करना इस बार दीपावली यहीं हमारे साथ मनाना ! मैंने उनकी बात मान ली और दीपावली पर फिर आने का वादा करके लौट आया । घर आकर किसी काम में मन नहीं लग रहा था । जीवन जैसे दीपावली का इंतजार बनकर रह गया था ।
कभी-कभी मुझे गुमसुम देखकर मां व पिताजी भी परेशान हो जाते जिसका परिणाम यह निकलता कि उन्होंने मेरी शादी के लिए जल्दी-जल्दी लड़कियां देखना शुरू कर दिया ।
मेरा इंतजार खत्म हुआ। ढेर सारी मिठाइयों, पटाखे और रिशु के लिए फुलझड़ियां लेकर, रायपुर दीदी के यहां फिर पहुंच गया । मुझे मिलकर सभी बड़े खुश थे, लेकिन मेरे मन में तो जब तक ट्रेन वाली लड़की से न मिल लेता तब तक अशांति थी । चारों ओर शोर था । तभी पटाखे छुड़ाते हुए हम टैरेस पर चले गए । मैंने तुरंत ही पड़ोस की कोठी के बगीचे पर नजर डाली तो वह लड़की सफेद सूट में बैठी चाय पी रही थी। उसे देखकर लगा मानो कोई त्योहार कोई खुशी उसके लिए सब बेमानी थी। वह शांत शालीन सभी से अनभिज्ञ अपनी ही दुनिया में खोई थी। इस खुशी के वातावरण में उसे यूं चुप सा देखकर मेरा मन भी बेचैन हो गया और मुझे रहा नहीं गया। मैंने त्योहार का फायदा उठाया और रिशु को लेकर उनके घर की तरफ चल दिया मुझे देखते ही उसके चेहरे पर आए भाव स्पष्ट बता रहे थे कि वह मुझे देखकर मन ही मन खुश थी। तभी उसकी मां आ गई मायूस से घिरा उनका चेहरा साफ बता रहा था कि वह किसी ऐसे कठिन समय को बिता रहे हैं जिसका उन्हें कोई अंत नजर नहीं आ रहा। मैंने उन्हें नमस्कार करके अपना परिचय दिया तो बदले में उन्होंने मुझे उस लड़की के बारे में सब कुछ बता दिया। उसका नाम रागिनी है, और वह बहुत बड़ी सिंगर बनना चाहती थी एक दिन जब रागिनी का स्टेज शो था तब एक कार एक्सीडेंट में उसने अपनी आवाज गवा दी। यह सुनते ही मुझे लगा कि मेरे कानों में किसी ने गरम लोहा पिघलाकर डाल दिया हो। मेरे लिए अब वहां एक पल भी रुकना संभव नहीं था। मैं निराशा की चादर ओढ़े दीदी के लौट आया और चुपचाप बैठ गया। बेहद उखड़े मन से दीपावली के कुछ दिनों बाद मैंने वापस की गाड़ी पकड़ ली। लौटकर अपने को व्यस्त रखने की कोशिश करने लगा, लेकिन मन बार-बार बेचैन हो उठता और अब तो उसका मायूस चेहरा मेरा सोते जागते पीछा करने लगा।
उस दिन सुबह से ही आसमान बादलों से घिरा था। मौसम सुहावना हो गया। हवा में सोंधी सोंधी खुशबू थी। मन का पक्षी उड़ जाने को बेचैन हो रहा था। शाम तक हल्की हल्की फुहार पड़ने लगी। मन रह रहकर रागिनी की यादों में घुलने लगा तभी फ़ोन की घंटी बजी दीदी का फोन था। शायद उन्हें रिशु ने उस दिन की घटना के बारे में सब कुछ बता दिया था।
दीदी ने मुझे वापस रायपुर बुलाया था।
अपने को अब और रोक पाना मेरे लिए असंभव हो गया। मुझे अपनी अटैची तैयार करते देख मां पिताजी हैरान थे। वह जानते थे कि मेरी दौड़ मात्र रायपुर तक की ही है। वे कुछ नहीं बोले। पता नहीं मेरे दिल का हाल समझ गए थे या वास्तव में अनजान ही थे।
मैंने रात ही रायपुर वाली गाड़ी पकड़ ली। सुबह की पहली किरण के साथ ही मैं रायपुर पहुंच गया। मुझे आया देखकर दीदी और जीजाजी बहुत खुश हुए। जब मैंने दीदी से अचानक बुलाने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा, रागिनी जो अपनी आवाज गवां चुकी थी, उस दीपावली वाले दिन जब तुम अचानक घटना सुनते ही छोड़कर चले आए तो वह तुम्हारे पीछे दौड़ी आ रही थी और एक कार से टकरा गई।
भगवान ने जिस एक्सीडेंट में उसकी आवाज छीन ली थी, वैसे ही दूसरे एक्सीडेंट में उसकी आवाज लौटा दी। उसने तुम दोनों के बारे में सब कुछ बता दिया है।
दीदी की बात सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और मेरे मुख से आश्चर्य और खुशी के कारण बोल नहीं निकल पा रहे थे। मुझे ऐसा लगा जैसे कि मुझे सारी दुनिया की खुशी मिल गई हो। मैं तुरंत ही रागिनी के घर चल दिया। मुझे देखते ही उसके मुख से कुछ न निकला। भले ही वर्षों से चुप्पी के बाद उसे शब्द तलाशने में समय लग रहा था, लेकिन उसके दिल में मची हलचल का पता उसके चेहरे से लग रहा था। उसने कुछ न कहकर भी सब कुछ कह दिया था।
मैंने रागिनी की मां से कहा, माजी मैं आपसे आपकी बेटी रागनी का हाथ मांगता हूं।
क्या! मैंने वही सुना जो तुमने कहा
हा, माजी आपने ठीक सुना है
लेकिन, बेटा 
माजी इनकार नहीं कीजिए आप जानती है रागिनी मेरी जिंदगी बन चुकी है।
मैं भला किस मुंह से इनकार करूंगी। जुग जुग जियो बेटा। मुझ बुढ़िया की उम्र भी तुम्हें लग जाए।
कहते हुए उनका गला। रूंध गया गाल आंसुओं से भीग गए। रागिनी पहले की तरह नजरें झुकाए बैठी थी, लेकिन उसके गाल शर्म से लाल हो गए थे। मैं दीदी को सब बताने पलटा ही था, कि देखा दीदी दरवाजे के पास खड़ी थी। दीदी ने हमारी बातें सुन ली थी। दीदी ने आशीर्वाद स्वरुप अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया। मैं झुक कर दीदी के पांव छूने लगा तो देखा कि रागिनी भी मेरे साथ है। दीदी ने उसे बाहों में लेकर गले से लगा लिया।

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2 Comments

Babita patel

02-Jul-2024 09:06 AM

V nice

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Prince Singhal

02-Jul-2024 04:20 PM

Thanks

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